एक पुराना घर …

मैं जहाँ से किराने का सामान ख़रीदती हूँ , उसके पास एक पुरानी सी ईमारत है, जो कुछ खराब हालत में है। जब भी मैं वहाँ से खरीददारी करके बाहर निकलती हूँ , अपनी गाड़ी का इंतज़ार करते वक्त अक्सर उसी इमारत को देखते हुए सोचती हूँ कि वहाँ कौन रहता होगा, उनकी ज़िन्दगी कैसी होगी। ये कविता उन अनगिनत ख्यालों से बनी एक कहानी है।

एक पुराना घर दिखा,
टूटा फूटा खंडहर नुमा।
ईमारत तन कर खड़ी थी,
पर घर बेजान सा लगता था।

“यह कैसा घर है?” मैंने कहा,
“मरम्मत क्यों नहीं कराते इसकी?
दुनिया इसका हाल देख रही,
हालत अच्छी लगती नहीं।”

“टूटा है पर घर तो है,
फूटा है पर छत तो है,
रहने वाले सब साथ भी हैं।”

आई एक आवाज़ बगल से,
मरम्मत की बात तो सही है,
समय रहते वो भी हो जाएगी।

मैंने देखा पलट कर उसको,
मुस्कुराता एक लड़का था वो,
हँसता खिलखिलाता हुआ,
मुझसे ज़्यादा सुलझा था वो।

कुछ तो था उन आँखों में,
खड़ा था जिस यकीन के साथ।

मैंने पूछा, “क्या डरते भी हो कभी?”
घर टूटा तो हम भी टूटे,
तब डर लगता था कभी कभी।
अब तो डरना छोड़ दिया,
कुछ टूटा हमने जोड़ दिया,
कुछ फूटा अभी भी बाक़ी है।
पर उम्मीद तो हमने छोड़ी नहीं,
वह तो अब भी बाक़ी है।

“इस घर में हम तो बसते हैं,
पर यह तो दिल में बसती है।”
कहतेकहते वो चल दिया,
मैं चुपचाप वहीं खड़ी रही।

सच में हवा में कुछ कहानी सी थी,
टूटी दिवारें भी सयानी सी थीं।
हर दरार में आवाज़ सी थी,
हर कोने में अनकहे अल्फ़ाज़ से थे।

टूटे घर ने आख़िर सिखा दिया,

टूट कर सँभालना खुदको।
बेरंग सा होते हुए भी दिखा गया,
कि रंग भरना है खुद की दास्ताँ में मुझको।

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